ज़िंदगी के रंग – 153

कहां से आए हैं ?

कहां जाना है?

कुछ पता नहीं है .

फिर भी देखो तामझाम

कितना बिखराए हैं.

अगर कुछ हाथ से छूट गया

तो अपना समझ कर रो रहे हैं.

जबकि अपना है क्या

इसकी समझ है ही नहीं।

6 thoughts on “ज़िंदगी के रंग – 153

  1. बहुत अच्छी बात कही है रेखा जी आपने । फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ के अमर गीत – ‘वक़्त ने किया क्या हसीं सितम’ की पंक्तियां या आ गईं :

    जाएंगे कहाँ, सूझता नहीं
    चल पड़े मगर रास्ता नहीं
    क्या तलाश है, कुछ पता नहीं
    बुन रहे हैं दिन ख़्वाब दम-ब-दम

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    1. सच बात तो यह है कि मैं अपने ज़िंदगी की बातें हीं लिखती रहती हूँ. अपने आप को समझाते रहती हूँ.
      आप इतने सही और ख़ूबसूरत गीतों की पंक्तियाँ याद दिला कर कविताओं का सम्मान बढ़ा देते हैं.
      बहुत आभार जितेंद्र जी.

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  2. खूबसूरत यथार्थपरक पंक्तियाँ। मैं कौन नही मालूम कहां जाना पता नही मगर संसार हमारा हो चाहत लिए बैठे हैं।

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    1. धन्यवाद मधुसूदन . ज़िंदगी की ये सच्चाइयाँ कभी कभी मन में गूँजती हैं.

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